भाई! निजहितकारज करना, भाई! निज हित कारज करना ॥टेक॥
जनम मरन दुख पावत जातैं, सो विधिबन्ध कतरना ।
संधिभेद बुधि छैनी तें कर, निज गहि पर परिहरना ॥
भाई! निजहितकारज करना ॥1॥
परिग्रही अपराधी शंकै, त्यागी अभय विचरना ।
त्यों परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सब सुख भरना ॥
भाई! निजहितकारज करना ॥2॥
जो भवभ्रमन न चाहे तो अब, सुगुरूसीख उर धरना ।
'दौलत' स्वरस सुधारस चाखो, ज्यों विनसै भवभरना ॥
भाई! निजहितकारज करना ॥3॥
अर्थ : अरे भाई ! तू वह कार्य कर जो तेरे निज के हित का हो । जिससे तुझे जन्म मरण के दुख प्राप्त होते हैं , मिलते हैं उस कर्मबंध को , उस श्रृंखला को काट दो , कतर दो ।
दर्शन ज्ञान निज के और राग स्पर्श रस आदि पर के / पुद्गल के चिन्ह हैं , इसका निरंतर स्मरण रखना ।दोनों में मिलावट प्रतीत होती है , उसे ज्ञानरूपी छैनी से भेदकर निज को ग्रहण करो और पर को , पुद्गल को छोड़ दो ।
जो परिग्रही है , जो पर का ग्राहक है , चोर है , वह अपराधी की भाँति सदैव शंकित रहता है और जो पर का त्याग कर देता है वह निर्भय होकर विचरण करता है । इसीप्रकार पर की कामना , तृष्णा कर्मबंध करनेवाली व दुःख को देने वाली है , पर को छोड़ने से निज सुख की प्राप्ति होती है ।
जो तू संसार भ्रमण से छूटना चाहता है तो सद्गुरु के उपदेश को हृदय में धारण करना। दौलतराम कहते हैं कि अपनी ज्ञानसुधारस का , ज्ञान रूपी अमृत का पान करो जिससे संसार में मृत्यु का विनाश होवे अर्थात जन्म मरण से छुटकारा मिले ।