निरख सुख पायो जिनमुख-चन्द ॥टेक॥मोह महातम नाश भयो है, उर-अम्बुज प्रफुलायो ।ताप नस्यो तब बढ्यो उदधि आनन्द ॥निरख सुख पायो जिनमुख-चन्द ॥१॥चकवी कुमति बिछुरि अति बिलखे, आतमसुधा स्रवायो ।शिथिल भये सब विधिगण-फन्द ॥निरख सुख पायो जिनमुख-चन्द ॥२॥विकट भवोदधि को तट निकट्यो, अघतरु-मूल नसायो ।'दौल' लह्यो अब सुपद स्वछन्द ॥निरख सुख पायो जिनमुख-चन्द ॥३॥
अर्थ : अहो जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी चन्द्रमा को देखकर मैंने सच्चा सुख प्राप्त कर लिया है ।
जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी चन्द्रमा को देखने से मेरा मोहरूपी महा अन्धकार नष्ट हो गया है, हदयरूपी कमल प्रफुल्लित हो गया है, ताप (दुःख) मिट गया है और फिर आनन्द का सागर उमड पड़ा है ।
जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी चन्द्रमा को देखकर कुबुद्धिरूपी चकवी अलग होकर भारी विलाप कर रही है । आत्म-अमृत बरसने लगा है और समस्त कर्मसमूह के बन्ध शिथिल हो गये हैं ।
कविवर दौलतगम कहते हे कि जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी चन्द्रमा को देखकर दुस्तर संसार-समुद्र का किनारा निकट आ गया है, पापरूपी वृक्ष का मूल नष्ट हो गया है और मुझे अपने स्वाधीन पद की प्राप्ति हो गयी है ।