न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ॥टेक॥कुमतिकुनारि संग रति मानत, सुमतिसुनारि बिसारी ॥नर परजाय सुरेश चहैं सो, चख विषविषय विगारी ।त्याग अनाकुल ज्ञान चाह, पर-आकुलता विस्तारी ॥न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ॥१॥अपनी भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी ।परद्रव्यन की परनति को शठ, वृथा वनत करतारी ॥न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ॥२॥जिस कषाय-दव जरत तहाँ, अभिलाष छटा घृत डारी ।दुखसौं डरै करै दुखकारनतैं नित प्रीति करारी ॥न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ॥३॥अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशयमोह निवारी ।'दौल' स्वपर-हित-अहित जानके, होवहु शिवमग चारी ॥न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ॥४॥
अर्थ : अरे जिय ! सत्गुरु तुझे तेरा हित करनेवाली सीख-उपदेश देते हैं पर तू बिल्कुल अज्ञानी होकर उसे नहीं मानता, ग्रहण नहीं करता। सुमतिरूपी पत्नी का साथ छोड़कर तू कुमतिरूपी नारी के साथ रमण कर रहा है ! इन्द्र भी इस नर-पर्याय को पाने की कामना करते हैं जिसे तूने विषयों के वशीभूत होकर बिगाड़ दिया है । तूने आकुलता मिटानेवाले ज्ञान को छोड़कर पर की, पुद्गल की अभिलाषाकर आकुलता का विस्तार किया है। तू अपने स्व-रूप को भूलकर, अपनी समतारूपी निधि को भूलकर स्वयं भिखारी बन गया है, तूने स्वयं ही अपने दुःखों के संसार का सृजन किया है। अर्थात् भिखारी की भाँति संसार के दुःखों को अपनी झोली में डाल लिया है ! पर-द्रव्य की क्रिया का तू स्वयं कर्ता बनने का निरर्थक/व्यर्थ प्रयास करता रहा है। कषायों की जलती हुई आग में चाहरूपी/अभिलाषारूपी घी की आहुतियाँ डालता हैं । दु:ख से डरता हुआ भी तू दुःख उपजाने की क्रियाओं से तीव्र प्रीति करता रहा है।
श्री जिनेन्द्र के संशय और मोह को दूर करनेवाले वचनों को सुनने का अवसर अति दुर्लभ है, यह अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त होता है। दौलतराम कहते हैं कि तू अपने हित-अहित का विचार करके अब मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होकर उसके अनुकूल आचरण का निर्वाह कर अर्थात् संयमरूप चारित्र का पालन कर ।