हमारी वीर हरो भवपीर ॥टेक॥मैं दुख-तपित दयामृतसर तुम, लखि आयो तुम तीर ।तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोहदवानलनीर ॥हमारी वीर हरो भवपीर ॥१॥तुम विनहेत जगतउपकारी, शुद्ध चिदानंद धीर ।गनपतिज्ञान-समुद्र न लंघै, तुम गुनसिंधु गहीर ॥हमारी वीर हरो भवपीर ॥२॥याद नहीं मैं विपत सही जो, धर-धर अमित शरीर ।तुम गुन-चिंतत नशत तथा भय, ज्यों घन चलत समीर ॥हमारी वीर हरो भवपीर ॥३॥कोटवारकी अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर ।हरहु वेदना फन्द 'दौलको', कतर कर्म जंजीर ॥हमारी वीर हरो भवपीर ॥४॥
अर्थ : हे भगवान महावीर ! हमारी भव-पीड़ा ( संसार-भ्रमण की पीड़ा) का हरण करो।
मैं दु:खों से तप रहा हूँ, आप दयारूपी अमृत के सागर हैं, यह देखकर आपके पास - तट के पास आया हूं। आप परमेश्वर हैं, मोक्ष-पथ को दिखाने वाले हैं, मोहरूपी अग्नि का शमन करने के लिए नीर हैं, जल हैं।
आप बिना किसी प्रयोजन के - बिना हेतु के जगत का उपकार करनेवाले हैं, शुद्ध आत्मानंद हैं, धैर्यवान हैं। आप गुणों के इतने गहन, गहरे समुद्र हैं कि गणधर का ज्ञान भी उनको लाँघने में; उनका पार पाने में असमर्थ है।
मैंने बार-बार अनेक बार सुंदर देह धारण करके अगणित दु:ख सहे। आपके गुणों के चिंतवन से सारे भय उसी प्रकार विघट जाते हैं जैसे तेज पवन के झौंकों से बादल बिखर जाते हैं।
अनेक बार की, भाँति-भाँति की मेरी अरज-विनती यही है कि अब मैं दु:ख सहते-सहते अधीर हो गया हूँ। दौलतराम जी कहते हैं कि मेरे कर्मों की जंजीर को काटकर मेरे इस दुःख जाल का हरण करो ।