मैं भाखूं हित तेरा, सुनि हो मन मेरा ॥टेक॥नरनरकादिक चारौं गति में, भटक्यो तू अधिकानी ।परपरणति में प्रीति करी, निज परनति नाहिं पिछानी ।सहै दुख क्यों न घनेरा ॥१॥कुगुरु कुदेव कुपंथ पंकफंसि, बहु खेद लहायो ।शिवसुख दैन जैन जगदीपक, सो मैं कबहुं न पायो,मिट्यो न अज्ञान अंधेरा ॥२॥दर्शनज्ञानचरण तेरी निधि, सौ विधिठगन ठगी है ।पाँचों इंद्रिन के विषयन में, तेरी बुद्धि लगी है,भया इनका तू चेरा ॥३॥तू जगजाल विषै बहु उरझ्यो, अब कर ले सुरझेरा ।'दौलत' नेमिचरन पंकज का, हो तू भ्रमर सबेरा,नशै ज्यों दुख भवकेरा ॥४॥
अर्थ : हे मेरे मन! तेरे ही हित की बात कही जाती है, उपदेश दिया जाता है, तू सुन !
हे मन, सुन ! तू मनुष्य, नरक, तिर्यंच और देव - इन चारों गतियों में बहुत अधिक भटक चुका। अन्य द्रव्य के परिणमन में तो रुचि लेता रहा और स्वयं की परिणति की तू पहचान भी नहीं कर पाया। तो फिर अत्यन्त दु:ख कैसे क्यों नहीं सहन करेगा? अर्थात् फिर तुझे अत्यन्त घने दु:ख सहन करने ही पड़ेंगे।
हे मन, सुन ! कुगुरु, कुदेव व कुधर्म के कीचड़ में फँसकर तू बहुत दुःखी हुआ और मोक्ष सुख को देनेवाले, उसकी राह बतानेवाले दीपक - जिनधर्म को तूने कभी भी ग्रहण नहीं किया, इसीलिए तेरा यह अज्ञान का अंधेरा नहीं मिट सका।
हे मन, सुन ! कर्मरूपी ठगों ने तेरी अपनी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की रत्नत्रय संपत्ति को हर लिया है, ठग लिया है। पाँचों इंद्रियों के विषयों में तेरी बुद्धि लगी है, रुचि लगी है और तू इन विषयों का दास हो रहा है।
हे मन, सुन! तू इस संसार के व्यूह-जाल में बहुत उलझ चुका, अब तो तू अपने को सुलझा ले। दौलतराम कहते हैं कि तू शीघ्र ही नेमिनाथ भगवान के चरण-कमलों पर मंडरानेवाला ज्ञानरूपी भँवरा बन जिससे तेरे भव-भव के होनेवाले दुख मिट जाएँ।