अब हम अमर भये न मरेंगे ॥तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों कर देह धरेंगे ॥टेक॥उपजै मरै कालतें प्रानी, तातै काल हरेंगे ।राग-द्वेष जग-बंध करत हैं, इनको नाश करेंगे ॥अब हम अमर भये न मरेंगे ॥१॥देह विनाशी मैं अविनाशी, भेदज्ञान पकरेंगे ।नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे ॥अब हम अमर भये न मरेंगे ॥२॥मरे अनन्ती बार बिन समुझै, अब सब दुःख बिसरेंगे ।'द्यानत' निपट निकट दो अक्षर, बिन-सुमरे सुमरेंगे ॥अब हम अमर भये न मरेंगे ॥३॥
अर्थ : अपने आत्म स्वरूप का भान होने पर साधक जीव कहता है कि मैं तो अजर--अमर तत्त्व हूँ, मेश कभी विनाश नहीं होता क्योंकि जिस मिथ्यात्व के कारण यह संसार मिलता है मैंने उस मिथ्यात्व को ही नष्ट कर दिया है तो अब पुन: इस देह का संयोग मुझे कैसे होगा?
काल द्रव्य के परिणमन के कारण प्राणी जन्म-मरण का चक्र करता है। अब हम अपने निज शुद्ध स्वरूप में ठहरकर इस काल की पराधीनता से अर्थात् जन्म-मरण से मुक्त हो जायेंगे तथा जो राग-द्वेष जगत में बंधन के कारण हैं, उनका हम नाश करेंगे।
यह देह तो नाशवान है और मैं अविनाशी तत्त्व हूँ -हम इस भेदज्ञान को समझकर ग्रहण करेंगे। यह देह तो नाशवान होने से नष्ट हो जायेगी और यह आतमा सदा काल रहने वाला है, अत: ऐसे भेद्ज्ञान में डूबकर हम निर्मल शुद्ध रूप में निखर जायेंगे।
कवि द्यानतरायजी कहते हैं कि अभी तक हमने आत्म स्वरूप को समझे बिना अनन्त बार जन्म-मरण धारण किया अत: अब उन सब दुःखों को भूलकर केवल दो अक्षर 'सोहं' (मैं वह सिद्ध स्वरूप हूँ) का ही निरंतर सुमिरण करेंगे अर्थात् उस शाश्वत रूप की ही पहचान और प्रतीति करेंगे।