आतमरूप अनूपम है, घटमाहिं विराजै होजाके सुमरन जापसों, भव भव दुख भाजै हो ॥टेक॥केवल दरसन ज्ञानमैं, थिरतापद छाजै हो ।उपमाको तिहुँ लोकमें, कोऊ वस्तु न राजै हो ॥१॥सहै परीषह भार जो, जु महाव्रत साजै हो ।ज्ञान बिना शिव ना लहै, बहुकर्म उपाजै हो ॥२॥तिहूँ लोक तिहुँ कालमें, नहिं और इलाजै हो ।'द्यानत' ताकों जानिये, निज स्वारथकाजै हो ॥३॥
अर्थ : हे आत्मन् ! इस देहरूपी घट में अनुपम आत्मा विराजता है, निवास करता है, उसके स्मरण-चिन्तन मात्र से, जप-तप से भव भवान्तर के दुःख दूर हो जाते हैं अर्थात् दुःखों की ओर से ध्यान हट जाता है।
यह आत्मा केवल अपने दर्शन और ज्ञान में स्थिर होने पर ही शोभित होता है। इसको उपमा के लिए तीन लोक में कोई दूसरी वस्तु नहीं है।
जो मुनिजन महान तप कर अनेक परीषहों को सहन करते हैं और महाव्रतों का पालन भी करते हैं, पर भेदज्ञान प्रतीति के अभाव में, अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान नहीं होने के कारण मोक्ष-लक्ष्मी का वरण नहीं कर पाते और मोक्ष-प्राप्ति के अभाव में विविधप्रकार के कर्मों का ही उपार्जन करते हैं।
तीनलोक व तीनकाल में मोक्ष प्राप्ति अर्थात् संसार अवस्था की पीड़ा से मुक्त होने के लिए भेद-ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई इलाज या उपचार नहीं है। द्यानतराय कहते हैं कि मुक्त होना अपने ही लाभ के लिए है, स्व के लिए है; उसके लिए आत्मा का ज्ञान होना, आत्मा को जानना आवश्यक है।