आतम अनुभव कीजै होजनम जरा अरु मरन नाशकै, अनंतकाल लौं जीजै हो ॥टेक॥देव धरम गुरु की सरधा करि, कुगुरु आदि तज दीजै हो ।छहौं दरब नव तत्त्व परखकै, चेतन सार गहीजै हो ॥आतम अनुभव कीजै हो ॥१॥दरब करम नो करम भिन्न करि, सूक्ष्मदृष्टि धरीजै हो ।भाव करमतैं भिन्न जानिकै, बुधि विलास न करीजै हो ॥आतम अनुभव कीजै हो ॥२॥आप आप जानै सो अनुभव, 'द्यानत' शिवका दीजै हो ।और उपाय वन्यो नहिं वनि है, करै सो दक्ष कहीजै हो ॥आतम अनुभव कीजै हो जनम जरा अरु मरन नाशकै, अनंतकाल लौं जीजै हो ॥३॥
अर्थ : हे भव्य ! तुम अपनी आत्मा का अनुभव करो, जिससे जन्म-बुढ़ापा-मरणरूपी रोग का नाशकर तुम अनन्तकाल के लिए अपने आत्म-स्वभाव में स्थिर हो जावो।
देव, गुरु और शास्त्र में पूर्ण श्रद्धाकर (विश्वास कर), उसके विपरीत कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र का त्याग करो। छह द्रव्य, नवतत्व को भी भली प्रकार जानकर, परखकर इस चेतन का सार-ज्ञान को पूर्णरूप से ग्रहण करो, अंगीकार करो।
द्रव्यकर्म और नोकर्म को अपने से भिन्न जानकर अपने शुद्ध स्वरूप को अत्यन्त सूक्ष्म (गहरी) दृष्टि से धारण करो। भावकर्मों से भी भिन्न जानकर मात्र बुद्धि के विलास में तर्क-कुतर्क मत करो।
स्वयं, अपने आप जो कुछ जाना जाए वह ही अनुभव कहलाता है। द्यानतरायजी कहते हैं, मुझे मोक्ष का, शिव का ऐसा ही अनुभव मिले। मोक्षप्राप्ति के लिए आत्म अनुभव के अतिरिक्त और कोई उपाय है ही नहीं। जो ऐसा उपाय कर लेता है, आत्म-अनुभव कर लेता है वह ही मोक्ष पाता है, वही दक्ष (निपुण) कहलाता है।