देखो नाभिनंदन जगवंदन मदन भंजन गुन निरंजन,राजको समाज साज, वन विचरत ॥टेक॥इन्द्रिनिसौ नेह तोरि, सकल कषाय छोरि,आतमसौ प्रीत जोरि, धीरज धरत ॥१॥राग दोष मोषकर, मोष भाव पोषकर,पोष विषैं सोष करि, करम हरत ॥२॥'द्यानत' मेरू समान, थिर तन मन ध्यान,इन्द्र धरनिंद्र आनि, पाँइन परत ॥3॥
अर्थ : हे भव्य जीवो ! देखो! नाभिराज्य के जुत्र ऋामदेव हो जाता हैं, ना के द्वारा पूजनीय हैं, कामदेव का नाश करने वाले हैं, सब कालिमा रहित हैं और गुणों की खान हैं, उन्होंने राज समाज को सँभला दिया है और स्वयं वन में विचरण कर रहे हैं।
वे इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होकर, सब कषायों को छोड़कर अपनी आत्मा से प्रीत जोड़ते हुए, लगाते हुए, धैर्य धारण किए हुए हैं। परमधीर हैं।
राग-द्वेष का नाशकर, मोक्षप्राप्ति की भावनासहित, विषयपोषण को सोखकर-सुखाकर, कर्म निर्जरा कर रहे हैं।
द्यानतराय कहते हैं कि वे मेरु के समान अचल तन हैं और मन से ध्यानमग्न हैं। इन्द्र व धरणेन्द्र आकर उनके चरणों में अपना शीश झुकाते हैं, चरणों में नमते हैं।