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कलि में ग्रन्थ बड़े उपगारी
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राग : आसावरी जोगिया, कबै निर्ग्रंथ स्वरूप धरूँगा

कलि में ग्रन्थ बड़े उपगारी ।
देव शास्त्र गुरु सम्यक सरधा, तीनों जिन तैं धारी ॥टेक॥

तीन बरस वसु मास पंद्र दिन, चौथा काल रहा था ।
परम पूज्य महावीर स्वामी तब, शिवपुर राज लहा था ॥१॥

केवलि तीन, पाँच श्रुतकेवलि, पीछैं गुरुनि विचारी ।
अंग पूर्व अब न हैं, न रहेंगे, बात लिखी थिरकारी ॥२॥

भविहित कारन धर्म विचारन, आचारजों बनाये ।
बहुतानि तिनकी टीका कीनी, अद्भुत अरथ समाये ॥३॥

केवलि-श्रुतकेवलि यहँ नाहीं, मुनिगन प्रगट न सूझे ।
दोऊ केवलि आज यही हैं, इनही को मुनि बूझे ॥४॥

बुद्धि प्रगट करि आप बाँचिये, पूजा वंदन कीजे ।
दरब खरचि लिखवाय सुधाय, सुपंडित जन को दीजे ॥५॥

पढ़ते सुनतें चरचा करतें, हैं संदेह जु कोई ।
आगम माफिक ठीक करै है, देख्यो केवलि सोई ॥६॥

तुच्छ बुद्धि कछु अरथ जानिकैं, मनसों विंग उठाये ।
अवैधिज्ञानी श्रुतज्ञानी मनो, सीमंधर मिलि आये ॥७॥

ये तो आचारज हैं साँचे, ये आचारज झूठे ।
तिनिके ग्रन्थ पढ़ें नित बन्दै, सरधा ग्रन्थ अपूठे ॥८॥

साँच झूठ तुम क्यों कर जानो, झूठ जान क्यों पूजो ।
खोट निकाल शुद्ध कर राखो, अवर बनाओ दूजो ॥९॥

कौन सहामी बात चलावै, पूछैं आनमती तो ।
ग्रन्थ लिख्यो तुम क्यों नहिं मानो, जवाब कहा कहि जीतो ॥१०॥

जैनी जैनग्रन्थ के निंदक, हुंडासर्पिनी जोरा ।
'द्यानत' आप जानि चुप रहिये, जग में जीवन थोरा ॥११॥



अर्थ : कलिकाल में अर्थात् इस पंचमकाल में ग्रंथ ही सब प्रकार से उपकार करनेवाले हैं। ये ग्रंथ देव, शास्त्र व गुरु में सम्यक् श्रद्धा धारण करानेवाले हैं।

चतुर्थ काल को समाप्ति में जब तीन वर्ष आठ माह और पंद्रह दिन शेष रहे थे तब भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था।

भगवान महावीर के बाद तीन केवली और पाँच श्रुत केवली हुए, उनके पश्चात् गरुओं के विचार में आया कि अब भगवान के उपदेश जो बारह अंगों और चौदह पूर्वो के रूप में हैं उन अंगों-पूर्वो का ज्ञान सुरक्षित नहीं रह पायेगा, यह बात निश्चित है।

तब भव्यजनों के लाभार्थ तथा धर्म के प्रसार व रक्षा के लिए आचार्यों ने ग्रन्थों की रचना की। बहुत से ग्रंथों की टीकाएँ भी की जिसमें विषय का अद्भुत विश्लेषण करते हुए सार का समावेश किया गया।

अब केवली व श्रुत केवली इस क्षेत्र में नहीं हैं तथा मुनियों के ज्ञान में स्पष्ट झलकना भी समाप्त होता जा रहा है, अब तो ये ग्रंथ और टीकाएँ ही केवलि व श्रुत केवलि हैं, मुनिजन भी इन्हीं को ज्ञान के आधार मानते हैं।

अब आप ही स्वयं अध्ययन कीजिए, पूजा व वंदना करिए। द्रव्य व्यय करके ग्रन्थों की अमृतरूप वाणी को लिखवाइए, प्रकाशित कीजिए । पण्डितजनों को अर्थात् विद्वानों को अध्ययन, मनन, विश्लेषण व वाचनार्थ दीजिए । पण्डितजनों का बहुमान कीजिए, सम्मान कीजिए। पढ़ते समय व उस पर चर्चा करते हुए यदि कोई शंका या संदेह हो तो उसे आगम के अनुसार जिस प्रकार केवली ने अपने ज्ञान से देखा है उसी प्रकार ठीक व सही कीजिए।

अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार सम्यक् व व्यवस्थित अर्थ लगाकर मन से गूढ अर्थों को समझने की, उनका निराकरण करने की चेष्टा करें । श्रुत का ज्ञान शंकासमाधान के लिए औषधि का ज्ञान होने के समान है। शंका-समाधान के लिए ही आचार्य कुंदकुंद सीमंधर भगवान के समवशरण में जाकर आये थे।

कौन आचार्य सच्चे हैं और कौन मिथ्या हैं, तथा किनके ग्रन्थों को नित्य पढ़ना व आदर करना चाहिए और किनके ग्रंथ इसके सर्वथा विपरीत हैं व सम्यक्त्व का पोषण नहीं करते हैं / यह सत्य है और यह झूठ है, यदि तुम किसी प्रकार जान पाओ तो तुम झूठ का प्रतिपादन करनेवाले ग्रंथ को किसलिए पूजोगे? उन ग्रन्थों में जिन-जिन दोषों का, त्रुटियों का समावेश है उसे हटाकर, निकालकर शुद्ध करके रखो तथा उसी के अनुसार / अनुरूप अन्य ग्रन्थों का लेखन व प्रसारण करो।

कोई अन्यमती अपने मिथ्या कथन की पुष्टि करे या उसकी संपुष्टि हेतु चर्चा या तर्क करे तो उसे कहो कि ग्रंथ में जो लिखा है उसे क्यों नहीं माना जाए? अर्थात् ग्रंथ को आगम प्रमाण मानकर उसे समझाओ, प्रत्युत्तर दो व अपना पक्षसमर्थन करो।

इस हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से जैनों व उनके ग्रंथों के निंदक बहुत लोग होंगे। यह जानकर द्यानतराय कहते हैं कि आप मौन रहिए, निरर्थक विवादों में मत पडिए; क्योंकि यह जीवन सीमित व थोड़ा है, उसे विवाद में समाप्त मत कीजिए।