भाई काया तेरी दुख की ढेरी, बिखरत सोच कहा है ।तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है ॥टेक॥ज्यों जल अति शीतल ह्वै काचौ, भाजन दाह दहा है ।त्यों ज्ञानी सुखशान्त काल का, दुख समभाव सहा है ॥तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है ॥१॥बोदे उतरैं नये पहिरतैं, कौंने खेद गहा है ।जप तप फल परलोक लहैं जे, मरकै वीर कहा है ॥तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है ॥२॥'द्यानत' अन्तसमाधि चहैं मुनि, भागौं दाव लहा है ।बहु तज मरण जनम दुख पावक, सुमरन धार बहा है ॥तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है ॥३॥
अर्थ : अरे भाई! यह काया तो दुख का ढेर है । इसके बिखरने का तू क्या विचार करता है, सोच करता है ! तेरे पास तो तेरा शाश्वत ज्ञान-शरीर है जो महान है ।
जो जल शीतल है, बहुत ठंडा है, वह भी बरतन के गरम होने पर उसमें पड़ा होने के कारण गरम हो जाता है, उबलता है। इसीप्रकार ज्ञानी सुख में शान्ति का अनुभव करता हुआ, दुःख में भी समभाव-परणति करता रहता है।
पुराने या खराब होने पर वे कपड़े उतारकर नए कपड़े पहने जाते हैं, उसमें खेद की, दुख की क्या बात है ? जप-तप का फल परलोक में मिलता है । यहाँ तो मरकर वह वीर कहलाता है ।
द्यानतराय कहते हैं कि जो मुनि अन्त समय में अपना समाधिमरण चाहता है, उसे भाग्य से यह एक अवसर मिला है । बहुत जन्म-मरण के दु:खों की अग्नि को छोड़कर, उसके यानी आत्मा के स्मरण को धारा में बहता चल, भक्ति में मगन हो जा ।