गुरु समान दाता नहिं कोई ।भानु प्रकाश न नाशत जाको, सो अंधियारा डारै खोई ॥टेक॥मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई ।नरक पशू गति आग माहिं तैं, सुरग मुकत सुख थापै सोई ॥गुरु समान दाता नहिं कोई ॥१॥तीन लोक मन्दिर में जानौ, दीपकसम परकाशक लोई ।दीप तलैं अंधियार भरयो है, अन्तर बाहिर विमल है जोई ॥गुरु समान दाता नहिं कोई ॥२॥तारन - तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई ।'द्यानत' निशिदिन निरमल मन में, राखो गुरु - पद पंकज दोई ॥गुरु समान दाता नहिं कोई ॥३॥
अर्थ : हे आत्मन् ! गुरु के समान दाता अर्थात् देनेवाला अन्य कोई नहीं है।
अपने भीतर की मलीनता को, अंधकार को जिसे सूर्य का प्रकाश भी नहीं भेद सकता अर्थात् मिटा नहीं सकता, उसको वह गुरु ज्ञान के आलोक से, प्रकाश से नष्ट कर देता है, खो देता है।
जैसे मेघ समानरूप से चारों तरफ बरसता है। इस प्रकार बरसने की उसकी स्वयं कोई इच्छा नहीं होती वह स्वत: ही बरसता है । वैसे ही गुरु जीवों को नरक व पशुगति की दाह से बाहर निकालकर स्वर्ग व मुक्ति के सुख में मात्र ज्ञान के द्वारा स्थापित करता है।
वह गुरु तीन लोक में चैत्य (मन्दिर) के समान पूज्य है अर्थात् श्रद्धा व विश्वास का केन्द्र है। दीपक स्वयं जलकर अपने चारों ओर प्रकाश करता है किन्तु उस लौकिक दीपक के तले तो अँधियारा होता है पर गुरु तप करता है और वह अन्तर तथा बाह्य सब ओर से प्रकाशक होता है।
गुरु ज्ञान के द्वारा संसार से उस पार उतारने के लिए जहाज के समान है, जबकि सारा कुटुम्ब तो संसार में डुबानेवाला है । द्यानतराय कहते हैं कि अपने मन को निर्मल कर उसमें ऐसे गुरु के चरण-कमल को सदा आसीन रखो, उसे श्रद्धापूर्वक सदैव नमन करो।