जिनके हिरदै प्रभुनाम नहीं तिन, नर अवतार लिया न लिया ॥टेक॥दान बिना घर-वास वासकै, लोभ-मलीन धिया न धिया ॥मदिरापान कियो घट अन्तर, जल मल सोधि पिया न पिया ।आन प्रान के मांस भखेतैं, करुनाभाव हिया न हिया ॥१॥रूपवान गुनखान वानि शुभ, शीलविहान तिया न तिया ।कीरतवंत मृतक जीवत हैं, अपजसवंत जिया न जिया ॥२॥धाममाहिं कछु दाम न आये, बहु व्योपार किया न किया ।'द्यानत' एक विवेक किये बिन, दान अनेक दिया न दिया ॥३॥
अर्थ : हे नर ! जिसके हृदय में प्रभु का स्मरण नहीं है, प्रभु के नाम-उच्चारण की लगन नहीं है तो उसने जो यह नर भव पाया है वह पाकर भी नहीं पाए हुए के बराबर है अर्थात् उसके नरभव का कोई उपयोग नहीं हो रहा है । दान बिना गृहस्थ का जीवन जीवन नहीं है, लोभ से मलीन बुद्धि बुद्धि नहीं है, अर्थात् दोनों ही व्यर्थ हैं।
अरे मनुष्य ! तू यदि अपने अन्तर में मद से भरा हुआ घट है अर्थात् निरन्तर मद-पान में रत हैं, तो बाह्य में जल छानकर पिया तो उसका कोई प्रयोजन शेष नहीं रह जाता वह भी न पिये के समान है। अन्य प्राणियों के मांस को यदि तू खाता है, और तेरे हृदय में कोई करुणा का भाव है तो वह करुणाभाव भी निष्फल है, निस्सार है, करुणाविहीन के समान है।
यदि कोई स्त्री रूपवान है, अत्यन्त गुणी है, बोलने में विनयवान है पर यदि चारित्र से च्युत हो तो उसका रूपवान, गुणवान होना न होने के बराबर है। कीर्तिवान व्यक्ति मरकर भी जीवित के समान है किन्तु अपयशवाला व्यक्ति जीवित होते हुए भी जीवनविहीन के समान है।
जिस व्यापार से घर में कमाई न हो तो ऐसा व्यापार करना नहीं करने के बराबर है । द्यानतराय कहते हैं कि यदि विवेक नहीं है तो विवेक के बिना ऐसा दिया गया दान भी न दिये के समान है ।