भाई! ज्ञान का राह सुहेला रेदरब न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला रे ॥टेक॥लड़ना नाहीं मरना नाहीं, करना बेला तेला रे ।पढ़ना नाहीं गढ़ना नाहीं, नाच न गावन मेला रे ॥भाई! ज्ञान का राह सुहेला रे ॥१॥न्हानां नाहीं खाना नाहीं, नाहिं कमाना धेला रे ।चलना नाहीं जलना नाहीं, गलना नाहीं देला रे ॥भाई! ज्ञान का राह सुहेला रे ॥२॥जो चित चाहे सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे ।'द्यानत' यामें कौन कठिनता, वे परवाह अकेला रे ॥भाई! ज्ञान का राह सुहेला रे ॥३॥
अर्थ : अरे भाई ! ज्ञान की राह सबसे सरल है, सुगम है, सीधी है । इसके लिए न किसी द्रव्य की आवश्यकता है, न देह को जलाने की, कष्ट देने की आवश्यकता है और न किसी नए योग या भोग की आवश्यकता है ।
इसके लिए किसी से लड़ना नहीं है, इसके लिए मरना नहीं है । न कोई बेला या तेला अर्थात् दो-दो व तीन-तीन दिन का उपवास करना है । न पढ़ना है, न कोई किसी वस्तु का निर्माण करना है, न नाचना, न गाना और न कोई मेला (लोगों को इकट्ठा) करना है ।
ज्ञान पाने के लिए न नहाने की आवश्यकता है, न खाने की आवश्यकता है, न द्रव्य उपार्जन की आवश्यकता है। न कहीं चलना है, न जलना है, न नष्ट होना है अर्थात् न तन को क्षीण करना है ।
यह चित्त कुछ-न कुछ 'चाह' करता है, इच्छा करता है, बस वह चाह ही नित्य दाह उत्पन्न करती है अर्थात् वह चाह ही दुःख का कारण है अत: तू मात्र 'चाह' का खेल समाप्त कर, बस ज्ञान की राह मिल जायेगी। धानतराय कहते हैं कि बता इसमें कौन-सी कठिन बात है? तू बिना किसी प्रकार की चाह के अकेला-निसंग-चिन्तारहित हो जा ।