देखो! भाई श्रीजिनराज विराजैं ॥टेक॥कंचनमनिमय सिंहपीठ पर, अन्तरीछ प्रभु छाजै ॥तीन छत्र त्रिभुवन जस जपैं, चौंसठि चमर समाजैं ।बानी जोजन घोर मोर सुनि, डर अहि पातक भाजैं ॥देखो! भाई श्रीजिनराज विराजैं ॥१॥साढ़े -बारह कोड़ दुंदुभी, आदिक बाजे बाजैं ।वृक्ष अशोक दिपत भामण्डल, कोड़ि सूर शशि लाजैं ॥देखो! भाई श्रीजिनराज विराजैं ॥२॥पहुपवृष्टि जलकन मंद पवन, इंद्र सेव नित साजैं ।प्रभु न बुलावै 'द्यानत' जावैं, सुरनर पशु निज काजैं ॥देखो! भाई श्रीजिनराज विराजैं ॥३॥
अर्थ : (इस भजन में समवशरण का वर्णन है।)
अरे भाई देखो, दर्शन करो ! श्री जिनराज विराजमान हैं । स्वर्ण के रत्नजड़ित सिंहासन से ऊपर आकाश में अधर आसीन होकर शोभायमान हैं । तीन छत्र -- तीन लोकों में व्याप्त आपके यश के प्रतीक हैं । ये आपके यश का बखान कर रहे हैं । चौंसठ देवगण मिलकर चंवर ढोर रहे हैं ।
योजन की दूरी तक आपकी वाणी सुनकर पाप इस प्रकार पलायित हो जाते हैं, हट जाते हैं जैसे मोर की ध्वनि सुनकर सर्प डरकर भाग जाता है । दुंदुभि आदि साढ़े बारह करोड़ वाद्य बज उठते हैं । अशोक वृक्ष के नीचे विराजित आपका दिव्यगात और चारों ओर प्रकाशमान आभा-मंडल मनोहारी है, जिसके तेज व कांति के समक्ष करोड़ों सूर्य व चन्द्र का उजाला भी फीका लगता है ।
मंद बयार और पुष्पवृष्टि वातावरण को सुवासमय / सुगन्धित कर मुग्ध कर रही है । इन्द्र प्रतिदिन आपकी पूजा करता है । प्रभु वीतरागी हैं वे किसी को भी नहीं बुलाते हैं ! द्यानतराय कहते हैं कि देव, मनुष्य, पशु सब अपनी कार्यसिद्धि के लिए स्वयं ही वहाँ समवशरण में खिंचे चले जाते हैं ।