प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकालयह सब कर्म उपाधि है, राग दोष भ्रम जाल ॥टेक॥कहा भयो काई लगी, आतम दरपनमाहिं ।ऊपरली ऊपर रहै, अंतर पैठी नाहिं ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥१॥भूलि जेवरी अहि, मुन्यो, ढूंठ लख्यो नररूप ।त्यों ही पर निज मानिया, वह जड़ तू चिद्रूप ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥२॥जीव-कनक तन मैलके, भिन्न भिन्न परदेश ।माहैं, माहैं संध है, मिलैं नहीं लव लेश ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥३॥घन करमनि आच्छादियो, ज्ञानभानपरकाश ।है ज्योंका त्यों शास्वता, रंचक होय न नाश ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥४॥लाली झलकै फेटक में, फेटक न लाली होय ।परसंगति परभाव है, शुद्धस्वरूप न कोय ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥५॥त्रस थावर नर नारकी, देव आदि बहु भेद ।निहचै एक स्वरूप हैं, ज्यों पट सहज सफेद ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥६॥गुण ज्ञानादि अनन्त हैं, परजय सकति अनन्त ।'द्यानत' अनुभव कीजिये, याको यह सिद्धन्त ॥प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतैं भिन्न त्रिकाल ॥७॥
अर्थ : हे प्राणी ! इस आत्मा का स्वरूप अद्भुत है, अनुपम है । यह सदैव तीनों काल में पर से भिन्न है । राग-द्वेष का जाल भ्रम पैदा करनेवाला है और यह सब कर्मजन्य है ।
क्या हुआ यदि आत्मा के स्वच्छ दर्पण पर काई लग गई? यह काई ऊपर ही लगी हुई है । उस काई का दर्पण के अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है ।
जैसे जेवड़ी (रस्सी) को भूल से साँप समझ लिया और ढूंठ (लकड़ी) को मनुष्य के समझ लिया उसी प्रकार पर को अपना मान लिया । जब भी तू यह बात समझ लेगा कि देह दूँठ है - जड़ है और तू उससे भिन्न है, चैतन्य है तो तू पर से भिन्न आत्मा को जान जायेगा ।
जैसे स्वर्ण व मैल परस्पर भिन्न हैं उसी प्रकार यह जीव भी पर से भिन्न है, भिन्न प्रदेशवाला है। दोनों मिले हुए हैं, साथ-साथ हैं, फिर भी दोनों एक-दूसरेरूप नहीं होते, परस्पर में किंचित् भी नहीं मिलते ।
ज्ञानरूपी सूर्य पर कर्मरूपी बादल घने रूप से छा रहे हैं परन्तु बादल से ढँक जाने पर भी सूर्य सदैव प्रकाशवान ही रहता है । वह ज्यों का त्यों रहता है । उसका कभी भी किंचित् भी नाश नहीं होता ।
लाल रंग के सम्पर्क से स्फटिक में लाल प्रकाश झलक जाता है, परन्तु इससे स्फटिक लाल रंग का नहीं हो जाता । इसी प्रकार पर की संगति पर-रूप की है - वह अपने-रूप, स्व-रूप की कभी नहीं होती ।
जीव के त्रस, स्थावर, मनुष्य, नारकी और देव इस प्रकार अनेक भेद हैं । पर इन सबमें मूलस्वरूप निश्चय से एक ही है । जैसे कपड़ा अपने मूलरूप में सफेद - स्वच्छ होता है, पर भिन्न भिन्न रंगों को संगत से वह भिन्न-भिन्न रंग का दिखाई देता है ।
ज्ञान आदि गुण अनन्त हैं, पर्यायों की शक्ति भी अनन्त है । पर को जय / जीतने की शक्ति भी अनन्त है । द्यानतराय कहते हैं कि इस सिद्धान्त को समझकर इसका अनुभव करो ।