मन! मेरे राग भाव निवार ॥टेक॥राग चिक्कनत लगत है, कर्मधूलि अपार ॥राग आस्रव मूल है, वैराग्य संवर धार ।जिन न जान्यो भेद यह, वह गयो नरभव हार ॥मन! मेरे राग भाव निवार ॥१॥दान पूजा शील जप तप, भाव विविध प्रकार ।राग बिन शिव सुख करत हैं, रागतैं संसार ॥मन! मेरे राग भाव निवार ॥२॥वीतराग कहा कियो, यह बात प्रगट निहार ।सोइ कर सुखहेत 'द्यानत', शुद्ध अनुभव सार ॥मन! मेरे राग भाव निवार ॥३॥
अर्थ : ए मेरे मन ! तू राग भावों को छोड़ दे, उनसे निवृत्ति पा ले । संगरूपी चिकनाई के कारण अपार कर्मरूप धूलि के कण आकर जम जाते हैं ।
आस्रव (कर्मों के आने) का मूल कारण राग ही है और जिसे वैराग्य (राग का अभाव) होता है उसके संवर होता है इसलिए राग छोड़कर वैराग्य धारणकर । जिसने राग और वैराग्य के इस भेद को, इस तथ्य को नहीं जाना वह अपने इस मनुष्य जन्म में हार गया है अर्थात् उसका यह मनुष्य जन्म निरर्थक हो चला है ।
दान, पूजा, शील, जप और तप अनेक प्रकार से भावों को सँजोने की क्रियाएँ की जाती है । परन्तु मोक्ष का सुख तो राग के बिना ही प्राप्त होता है, राग से तो संसार परिभ्रमण ही होता है।
जिनके राग नहीं रहा, राग उन्होंने क्या किया? इस बात को तू स्पष्टत: देख और समझ ले। द्यानतराय कहते हैं वह ही तू कर यह ही सारे अनुभवों का सार है।