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श्री
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यह तन जंगम रूखड़ा
Karaoke :
चाल : गोपीचन्द

यह तन जंगम रूखड़ा, सुनियो भवि प्रानी ।
एक बूंद इस बीच है, कछु बात न छानी ॥टेक॥

गरभ खेत में मास नौ, निजरूप दुराया ।
बाल अंकुरा बढ़ गया, तब नजरों आया ॥1॥

अस्थिरसा भीतर भया, जानै सब कोई ।
चाम त्वचा ऊपर चढ़ी, देखो सब लोई ॥२॥

अधो अंग जिस पेड़ है, लख लेहु सयाना ।
भुज शाखा दल आँगुरी, दृग फूल रवाँना ॥३॥

वनिता वेलि सुहावनी, आलिंगन कीया ।
पुत्रादिक पंछी तहां, उड़ि वासा लिया ॥४॥

निरख विरख बहु सोहना, सबके मनमाना ।
स्वजन लोग छाया तकी, निज स्वारथ जाना ॥५॥

काम भोग फलसों फला, मन देखि लुभाया ।
चाखत के मीठे लगे, पीछें पछताया ॥६॥

जरादि बलसों छवि घटी, किसही न सुहाया ।
काल अगनि जब लहलही, तब खोज न पाया ॥७॥

यह मानुष द्रुमकी दशा, हिरदै धरि लीजे ।
ज्यों हूवा त्यों जाय है, कछु जतन करीजे ॥८॥

धर्म सलिलसों सींचिकै, तप धूप दिखइये ।
सुरग मोक्ष फल तब लगैं, 'भूधर' सुख पइये ॥९॥



अर्थ : हे भव्यजनो! सुनो, यह देह एक अस्थायी वृक्ष है, इस देह में एक आत्मा निवास करती है, यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है।
माता के गर्भाशय में नौ महीने रहा और अपने स्वरूप को छिपाया। बालक अंकुर जब बढ़ने लगा, तब लोगों की दृष्टि में आया।
भीतर में सब कुछ अस्थिर-सा था, ये सब कोई जानते थे, जब ऊपर चमड़ी बनी तब फिर सबने देखी। ये अंग वृक्ष के समान हैं ।
हे सयाने ! तू देख - हाथ दोनों शाखाएँ हैं, अंगुलियाँ पत्तों के समान हैं और आँखें पुष्प सी रमणीय हैं। स्त्री बेल के समान सुहावनी लगती है, उसका आलिंगन किया जाता है और जिनने गर्भ में आकर जन्म लिया है वे पुत्रादिक पक्षीरूप हैं।
जब उस वृक्ष को देखा तो सुहावना लगा, सबके मन को अच्छा लगा। स्वजन अपने स्वार्थ के कारण उसकी छाया में आते हैं ।
काम-भोगरूपी फलों के बीच बढ़ते हुए, मन उसी में लुब्ध हो गया। उसके फल चखने में मीठे लगे, परन्तु पीछे पछताना पड़ा।
रोगादि से बल घटा, रूप बिगड़ा, फिर वह (देहावृक्ष) किसी को भी अच्छा नहीं लगने लगा और तभी मृत्यु की आग दहक उठी और वह उसमें समा गया, उसका पता भी शेष न रहा।
इस मनुष्यरूपी वृक्ष की यह ही दशा है, इस बात को हृदय में धारण कर लीजिए, समझ लीजिए। जो हो चुका वह हो चुका, अब आगे के लिए कुछ यत्न कर लीजिए।
धर्मरूपी जल से सींचकर संयम की, तप की धूप दिखाइए अर्थात् उनका पालन कीजिए। भूधरदास कहते हैं कि स्वर्ग और मोक्षरूपी फल मिलें तब ही सुख की प्राप्ति होगी।
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