रे मन! कर सदा संतोष,जातैं मिटत सब दुख दोष ॥टेक॥बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तृषना होति ।बहुत ईंधन जरत जैंसे, अगनि ऊंची जोति ॥१॥लोभ लालच मूढ़ जन सो, कहत कंचन दान ।फिरत आरत नहिं विचारत, धरम धन की हान ॥२॥नारकिन के पाँय सेवत, सकुचि मानत संक ।ज्ञान करि बुझै 'बनारसी' को नृपति को रंक ॥३॥
अर्थ : अरे मन, तू सदैव संतोष धारण कर । तुझे मालूम नहीं, इस संतोष के आश्रय से ही संसार के समस्त दुःख और दोष दूर होते हैं ।
परिग्रह के बढ़ने से मोह बढ़ता है और मोह के बढ़ने से तृष्णा बढ़ती है । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अग्नि में अधिक ईधन के डालने से उसकी ज्वाला और अधिक ऊँची होती जाती है ।
रे मन, तू सदैव संतोष धारण कर ॥
मानव परिग्रह-संचय करके सुवर्ण का दान करता है और कहता है हमारे परिग्रह में कौन-सा पाप है, हम तो ऐसा करके सुवर्ण-दान तक करते हैं, परन्तु यह मूर्ख परिग्रह-संचय के पृष्ठवर्ती लोभ और लालच की सीमा पर कुछ भी विचार नहीं करता, जिसकी प्रेरणा से यह परिग्रह संचित किया जाता है । इसके अतिरिक्त इस संचय की आसक्ति में जो यह अहर्निश निमग्न रहता है और इस प्रकार जिस धर्म-धन की हानि उठाता है, उस ओर तोः इसका ध्यान ही नहीं जाता ।
रे मन, तू सदैव संतोष धारण कर ॥
मूढ़ मानव आशा के पीछे नारकियों के - अन्यायी धनियों के पैर पूजता है और उनकी गुलामी करता है और अपने को दीन समझकर सदैव संकोच करता है और संदिग्ध बना रहता है । इसे इतना आत्म-भान नहीं हो पाता कि प्रत्येक जीवात्मा के अन्दर अनन्त-ज्ञान और शान्ति का पुंज छिपा हुआ है और वह संसार में सब कुछ कर सकता है ।
रे मन, तू सदैव संतोष धारण कर ॥